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मिरी शनाख़्त के हर नक़्श को मिटाता है | शाही शायरी
meri shanaKHt ke har naqsh ko miTata hai

ग़ज़ल

मिरी शनाख़्त के हर नक़्श को मिटाता है

रशीदुज़्ज़फ़र

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मिरी शनाख़्त के हर नक़्श को मिटाता है
वो मेरे साए को मुझ से जुदा दिखाता है

बस एक पल में मिटा देंगी सर-फिरी मौजें
घरौंदे रेत के साहिल पे क्यूँ बनाता है

फ़ज़ा में कमरे की फैली हुई है इक ख़ुशबू
ये कौन आ के किताबें मिरी सजाता है

यही मिला है सिला मुझ को हक़-परस्ती का
कि वक़्त नेज़े पे सर को मिरे उठाता है

मैं उस के इश्क़ में ऐसे मक़ाम पर हूँ जहाँ
उसी का अक्स हर इक आइना दिखाता है