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मिरी निगाह में ये रंग-ए-सोज़-ओ-साज़ न हो | शाही शायरी
meri nigah mein ye rang-e-soz-o-saz na ho

ग़ज़ल

मिरी निगाह में ये रंग-ए-सोज़-ओ-साज़ न हो

राम कृष्ण मुज़्तर

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मिरी निगाह में ये रंग-ए-सोज़-ओ-साज़ न हो
तिरे करम का अगर सिलसिला दराज़ न हो

उमीद चश्म-ए-तग़ाफ़ुल-शिआ'र से कब थी
इस इल्तिफ़ात-ए-फ़रावाँ में कोई राज़ न हो

हमारे हाल-ए-परेशाँ पे इक नज़र भी नहीं
नियाज़-मंद से इतना तू बे-नियाज़ न हो

किसी ने तोड़ दिए बरबत-ए-हयात के तार
अब और क्या हो अगर आह-ए-जाँ-गुदाज़ न हो

नज़र न आए कहीं ये बहार का आलम
अगर तसव्वुर-ए-रू-ए-चमन-तराज़ न हो

चला तो है मगर ऐ रहरव-ए-रह-ए-इरफ़ाँ
हक़ीक़तों की भी मंज़िल कहीं मजाज़ न हो

जो उस के हुस्न की परछाइयाँ न आएँ नज़र
तो रूह गर्म-ए-तवाफ़-ए-हरीम-ए-नाज़ न हो

है एक फ़ित्ना-ए-बेदार हुस्न-ए-ख़्वाबीदा
सँभल कि घात में वो चश्म-ए-नीम-बाज़ न हो

शब-ए-फ़िराक़ न काटे कटे कभी 'मुज़्तर'
ख़याल-ए-दोस्त अगर ग़म में दिल-नवाज़ न हो