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मिरी निगाह किसी ज़ाविए पे ठहरे भी | शाही शायरी
meri nigah kisi zawiye pe Thahre bhi

ग़ज़ल

मिरी निगाह किसी ज़ाविए पे ठहरे भी

तारिक़ नईम

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मिरी निगाह किसी ज़ाविए पे ठहरे भी
मैं देख सकता हूँ हद्द-ए-नज़र से आगे भी

ये रास्ता मिरे अपने निशाँ से आया है
मिरे ही नक़्श-ए-कफ़-ए-पा थे मुझ से पहले भी

मैं उस की आँख के मंज़र में आ तो सकता हूँ
वो कम-निगाह मुझे हाशिए में रक्खे भी

मैं उस के हुस्न की थोड़ी सी धूप ले आया
वो आफ़्ताब तो ढलने लगा था वैसे भी

मिरे कहे पे मुझे चाक पर तो रखता है
मगर ये चाक से कहता नहीं कि घूमे भी

अभी तो मंसब-ए-हस्ती से मैं हटा ही नहीं
बदल गए हैं मिरे दोस्तों के लहजे भी

मैं एक शीशा-ए-सादा हूँ और मयस्सर हूँ
किसी की आँख मिरे आर-पार देखे भी