EN اردو
मिरी दास्तान-ए-अलम तो सुन कोई ज़लज़ला नहीं आएगा | शाही शायरी
meri dastan-e-alam to sun koi zalzala nahin aaega

ग़ज़ल

मिरी दास्तान-ए-अलम तो सुन कोई ज़लज़ला नहीं आएगा

बेदिल हैदरी

;

मिरी दास्तान-ए-अलम तो सुन कोई ज़लज़ला नहीं आएगा
मिरा मुद्दआ नहीं आएगा तिरा तज़्किरा नहीं आएगा

कई घाटियों पे मुहीत है मिरी ज़िंदगी की ये रहगुज़र
तिरी वापसी भी हुई अगर तुझे रास्ता नहीं आएगा

अगर आए दश्त में झेल तो मुझे एहतियात से फेंकना
कि मैं बर्ग-ए-ख़ुश्क हूँ दोस्तो मुझे तैरना नहीं आएगा

अगर आए दिन तिरी राह में तिरी खोज में तिरी चाह में
यूँही क़ाफ़िले जो लुटा किए कोई क़ाफ़िला नहीं आएगा

कहीं इंतिहा की मलामतें कहीं पत्थरों से अटी छतें
तिरे शहर में मिरे ब'अद अब कोई सर-फिरा नहीं आएगा

कोई इंतिज़ार का फ़ाएदा मिरे यार 'बेदिल'-ए-ग़म-ज़दा
तुझे छोड़ कर जो चला गया नहीं आएगा नहीं आएगा