EN اردو
मिरी बे-ख़ुदी है वो बे-ख़ुदी कि ख़ुदी का वहम-ओ-गुमाँ नहीं | शाही शायरी
meri be-KHudi hai wo be-KHudi ki KHudi ka wahm-o-guman nahin

ग़ज़ल

मिरी बे-ख़ुदी है वो बे-ख़ुदी कि ख़ुदी का वहम-ओ-गुमाँ नहीं

चकबस्त ब्रिज नारायण

;

मिरी बे-ख़ुदी है वो बे-ख़ुदी कि ख़ुदी का वहम-ओ-गुमाँ नहीं
ये सुरूर-ए-साग़र-ए-मय नहीं ये ख़ुमार-ए-ख़्वाब-ए-गिराँ नहीं

जो ज़ुहूर-ए-आलम-ए-ज़ात है ये फ़क़त हुजूम-ए-सिफ़ात है
है जहाँ का और वजूद क्या जो तिलिस्म-ए-वहम-ओ-गुमाँ नहीं

ये हयात आलम-ए-ख़्वाब है न गुनाह है न सवाब है
वही कुफ़्र-ओ-दीं में ख़राब है जिसे इल्म-ए-राज़-ए-जहाँ नहीं

न वो ख़ुम में बादे का जोश है न वो हुस्न जल्वा-फ़रोश है
न किसी को रात का होश है वो सहर कि शब का गुमाँ नहीं

वो ज़मीं पे जिन का था दबदबा कि बुलंद अर्श पे नाम था
उन्हें यूँ फ़लक ने मिटा दिया कि मज़ार तक का निशाँ नहीं