मिरी आह-ओ-फ़ुग़ाँ से बे-समाअत हो गए हो क्या
अभी तो इब्तिदा की है अभी से सो गए हो क्या
भरे बाज़ार में तन्हाइयों को ढूँडने वालो
मिरे ज़ौक़-ए-जुनूँ में तुम भी शामिल हो गए हो क्या
वो गुल जिस के लिए ये आसमाँ मौसम बदलता है
उसी का बीज मेरी ख़ाक-ए-जाँ में बो गए हो क्या
कोई आवाज़ क्यूँ देते नहीं साँसों के मरकज़ से
कि तुम भी ज़िंदगी के पेच-ओ-ख़म में खो गए हो क्या
कभी झाँका है तुम ने डूबते सूरज की आँखों में
कभी तुम झील के उस पार भी यारो गए हो क्या
ये बे-ख़्वाबी का आलम और हर आहट पे चौंक उठना
दरीचा क्यूँ खुला रखते हो पागल हो गए हो क्या
वो जिस पर ख़ेमा-ज़न थे क़ाफ़िले लैला-परस्तों के
कभी उस रास्ते पर भी बताओ तो गए हो क्या
ज़माने को कभी तस्वीर-ए-हैरत बन के देखा है
कभी बे-सम्त राहों पर भी दरवेशों गए हो क्या
ज़माने को कभी तस्वीर-ए-हैरत बन के देखा है
कभी बे-सम्त राहों पर भी दरवेशों गए हो क्या
सुनाओगे कहाँ तक दास्तान-ए-ख़ैर-ओ-शर अपनी
'ज़िया' इस दश्त-ए-जाँ में बन के क़िस्सा-गो गए हो क्या
ग़ज़ल
मिरी आह-ओ-फ़ुग़ाँ से बे-समाअत हो गए हो क्या
ज़िया फ़ारूक़ी