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मिरे वजूद का मेहवर चमकता रहता है | शाही शायरी
mere wajud ka mehwar chamakta rahta hai

ग़ज़ल

मिरे वजूद का मेहवर चमकता रहता है

अज़हर हाश्मी

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मिरे वजूद का मेहवर चमकता रहता है
इसी सनद से मुक़द्दर चमकता रहता है

किसी मज़ार पे छाई है ख़ाक मुफ़्लिस की
किसी मज़ार का पत्थर चमकता रहता है

ये कैसी रस्म-ए-हलाकत भी पा गई है रिवाज
ये कैसे ख़ून का मंज़र चमकता रहता है

मिरी निगाह को मंज़िल की रौशनी है अज़ीज़
बला से मेल का पत्थर चमकता रहता है

जो उठ के ख़ाक से पर्वाज़ का उजाला बना
उसी परिंदे का शहपर चमकता रहता है

मिटा के हौसले बातिल के आओ सू-ए-हक़
क़दम बढ़ाओ कि रहबर चमकता रहता है

नुजूम शम्स क़मर और जलने लगते हैं
सुख़न-वरों में जब 'अज़हर' चमकता रहता है