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मिरे ख़ुदा किसी सूरत उसे मिला मुझ से | शाही शायरी
mere KHuda kisi surat use mila mujhse

ग़ज़ल

मिरे ख़ुदा किसी सूरत उसे मिला मुझ से

शाहिद ज़की

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मिरे ख़ुदा किसी सूरत उसे मिला मुझ से
मिरे वजूद का हिस्सा न रख जुदा मुझ से

वो ना-समझ मुझे पत्थर समझ के छोड़ गया
वो चाहता तो सितारे तराशता मुझ से

उस एक ख़त ने सुखनवर बना दिया मुझ को
वो एक ख़त कि जो लिक्खा नहीं गया मुझ से

उसे ही साथ गवारा न था मिरा वर्ना
किसे मजाल कोई उस को छीनता मुझ से

अभी विसाल के ज़ख़्मों से ख़ून रिसता है
अभी ख़फ़ा है मोहब्बत का देवता मुझ से

है आरज़ू कि पलट जाऊँ आसमाँ की तरफ़
मिज़ाज अहल-ए-ज़मीं का नहीं मिला मुझ से

ख़ता के ब'अद अजब कश्मकश रही 'शाहिद'
ख़ता से मैं रहा शर्मिंदा और ख़ता मुझ से