मिरे जुनूँ को हवस में शुमार कर लेगा
वो मेरे तीर से मुझ को शिकार कर लेगा
मुझे गुमाँ भी नहीं था कि डूबता हुआ दिल
मुहीत जिस्म को इक रोज़ पार कर लेगा
मैं उस की राह चलूँ भी तो फ़ाएदा क्या है
वो कोई और रविश इख़्तियार कर लेगा
फ़सील-ए-शहर में रुकने की ही नहीं ये ख़बर
जो काम हम से न होगा ग़ुबार कर लेगा
वो गुल-बदन कभी निकला जो सैर-ए-सहरा को
तो अपने साथ हवा-ए-बहार कर लेगा
जहाँ पे बात फ़क़त नक़्द-ए-जाँ से बनती हो
वो ख़ुश-कलाम वहाँ भी उधार कर लेगा
हम ऐसे लोग बहुत ख़ुश-गुमान होते हैं
ये दिल ज़रूर तिरा ए'तिबार कर लेगा
खुलेगा इस पे ही 'अंजुम'-ख़लीक़ बाब-ए-क़ुबूल
जो अपना हक़्क़-ए-तलब उस्तुवार कर लेगा

ग़ज़ल
मिरे जुनूँ को हवस में शुमार कर लेगा
अंजुम ख़लीक़