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मिरे जिगर की ताब देख रुख़ की शिकस्तगी न देख | शाही शायरी
mere jigar ki tab dekh ruKH ki shikastagi na dekh

ग़ज़ल

मिरे जिगर की ताब देख रुख़ की शिकस्तगी न देख

आनंद नारायण मुल्ला

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मिरे जिगर की ताब देख रुख़ की शिकस्तगी न देख
फ़ितरत-ए-आशिक़ी समझ क़िस्मत-ए-आशिक़ी न देख

और नज़र वसीअ' कर पेश-ए-निगाह ही न देख
मौत में ढूँड ज़िंदगी ज़ीस्त में नीस्ती न देख

जैसे हर इक नफ़स नफ़स नोक-ए-सिनाँ लिए हुए
इश्क़ का ख़्वाब देख ले इश्क़ की ज़िंदगी न देख

मैं तो सरा-ए-शौक़ में दिल का कँवल जला चुका
अब ये तिरी ख़ुशी कि तू देख कि रौशनी न देख

एक उसूल याद रख सालिक-ए-राह-ए-ज़िंदगी
नक़्श-ओ-निगार-ए-दहर देख मुड़ के मगर कभी न देख

अपनी निगाह फेर ले हाँ ये मुझे क़ुबूल है
रख मिरी आरज़ू की शर्म-ए-शौक़ की बेबसी न देख

तुझ पे अयाँ है राज़-ए-दिल जान के बिन न बे-ख़बर
मा'नी-ए-ख़ामुशी समझ सूरत-ए-ख़ामुशी न देख

'मुल्ला' ये क्या लगा लिया दिल को हँसी हँसी में रोग
बात बता रहे थे जो हो के रही वही न देख