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मिरे दिल में हिज्र के बाब हैं तुझे अब तलक वही नाज़ है | शाही शायरी
mere dil mein hijr ke bab hain tujhe ab talak wahi naz hai

ग़ज़ल

मिरे दिल में हिज्र के बाब हैं तुझे अब तलक वही नाज़ है

वलीउल्लाह मुहिब

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मिरे दिल में हिज्र के बाब हैं तुझे अब तलक वही नाज़ है
जो ये जी ही लेने पे है नज़र तो क़ुबूल हो ये नमाज़ है

यही खोज लेने के वास्ते फिरूँ हूँ मैं साथ नसीम के
कि चमन में कोई है गुल कहीं तिरी बू से महरम-ए-राज़ है

कोई और क़िस्सा शुरूअ' कर जो तमाम कह सके हम-नफ़स
कि फ़साना ज़ुल्फ़-ए-सियाह का शब-ए-हिज्र से भी दराज़ है

हुई दिल में जब से है शोला-ज़न मिरी आतिश-ए-इश्क़ की हर नफ़स
जो पतंग ओ शम्अ' में देखिए न वो सोज़ है न गुदाज़ है

ब-ख़ुदा कि मुद्दत-ए-इश्क़ में यही बात फ़र्ज़ है नासेहा
कि सनम के नक़्श-ए-क़दम सिवा नहीं सज्दा-गाह-ए-नमाज़ है

न बराबर उस को भी ज़ाहिदो गिनो अपने का'बे की राह के
रह-ए-इश्क़ में जो क़दम रखो तो बहुत नशेब-ओ-फ़राज़ है

कोई शग़्ल उस से नहीं भला कि 'मुहिब' हो इश्क़ में मुब्तला
उसी राह-ए-हक़ का बने रहनुमा यही इश्क़ अगरचे मजाज़ है