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मिरा क़लम मिरे जज़्बात माँगने वाले | शाही शायरी
mera qalam mere jazbaat mangne wale

ग़ज़ल

मिरा क़लम मिरे जज़्बात माँगने वाले

ज़फ़र गोरखपुरी

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मिरा क़लम मिरे जज़्बात माँगने वाले
मुझे न माँग मिरा हाथ माँगने वाले

ये लोग कैसे अचानक अमीर बन बैठे
ये सब थे भीक मिरे साथ माँगने वाले

तमाम गाँव तिरे भोलपन पे हँसता है
धुएँ के अब्र से बरसात माँगने वाले

नहीं है सहल उसे काट लेना आँखों में
कुछ और माँग मिरी रात माँगने वाले

कभी बसंत में प्यासी जड़ों की चीख़ भी सुन
लुटे शजर से हरे पात माँगने वाले

तू अपने दश्त में प्यासा मरे तो बेहतर है
समुंदरों से इनायात माँगने वाले