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मिरा हाल पूछ के हम-नशीं मिरे सोज़-ए-दिल को हवा न दे | शाही शायरी
mera haal puchh ke ham-nashin mere soz-e-dil ko hawa na de

ग़ज़ल

मिरा हाल पूछ के हम-नशीं मिरे सोज़-ए-दिल को हवा न दे

कलीम आजिज़

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मिरा हाल पूछ के हम-नशीं मिरे सोज़-ए-दिल को हवा न दे
बस यही दुआ मैं करूँ हूँ अब कि ये ग़म किसी को ख़ुदा न दे

ये जो ज़ख़्म-ए-दिल को पकाए हम लिए फिर रहे हैं छुपाए हम
कोई ना-शनास-ए-मिज़ाज-ए-ग़म कहीं हाथ उस को लगा न दे

तू जहाँ से आज है नुक्ता-चीं कभी मुद्दतों में रहा वहीं
मैं गदा-ए-राहगुज़र नहीं मुझे दूर ही से सदा न दे

तब-ओ-ताब-ए-इश्क़ का है करम कि जमी है महफ़िल-ए-चश्म-ए-नम
ज़रा देखियो ऐ हवा-ए-ग़म ये चराग़ कोई बुझा न दे

वो जो शाइ'री का सबब हुआ वो मोआ'मला भी अजब हुआ
मैं ग़ज़ल सुनाऊँ हूँ इस लिए कि ज़माना उस को भला न दे