तेग़-ए-सितम से उस की मिरा सर जुदा हुआ 
शुक्र ख़ुदा कि हक़ मोहब्बत अदा हुआ 
क़ासिद को दे के ख़त नहीं कुछ भेजना ज़रूर 
जाता है अब तो जी ही हमारा चला हुआ 
वो तो नहीं कि अश्क थमे ही न आँख से 
निकले है कोई लख़्त-ए-दिल अब सौ जला हुआ 
हैरान रंग बाग़-ए-जहाँ था बहुत रुका 
तस्वीर की कली की तरह दिल न वा हुआ 
आलम की बे-फ़िज़ाई से तंग आ गए थे हम 
जागा से दिल गया जो हमारा बजा हुआ 
दर पे हमारे जी के हुआ ग़ैर के लिए 
अंजाम-ए-कार मुद्दई' का मुद्दआ' हुआ 
उस के गए पे दिल की ख़राबी न पोछिए 
जैसे कसो का कोई नगर हो लुटा हुआ 
बद-तर है ज़ीस्त मर्ग से हिज्रान-ए-यार में 
बीमार दिल भला न हुआ तो भला हुआ 
कहता था 'मीर' हाल तो जब तक तो था भला 
कुछ ज़ब्त करते करते तिरा हाल क्या हुआ
        ग़ज़ल
तेग़-ए-सितम से उस की मिरा सर जुदा हुआ
मीर तक़ी मीर

