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मुश्किल है होना रू-कश रुख़्सार की झलक के | शाही शायरी
mushkil hai hona ru-kash ruKHsar ki jhalak ke

ग़ज़ल

मुश्किल है होना रू-कश रुख़्सार की झलक के

मीर तक़ी मीर

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मुश्किल है होना रू-कश रुख़्सार की झलक के
हम तो बशर हैं उस जा पर जुलते हैं मलक के

मरता है क्यूँ तो नाहक़ यारी बिरादरी पर
दुनिया के सारे नाते हैं जीते-जी तिलक के

कहते हैं गोर में भी हैं तीन रोज़ भारी
जावें किधर इलाही मारे हुए फ़लक के

लाते नहीं नज़र में गुलतानी गुहर को
हम मो'तक़िद हैं अपने आँसू ही की ढलक के

कल इक मिज़ा निचोड़े तूफ़ान नूह आया
फ़िक्र-ए-फ़िशार में हूँ 'मीर' आज हर पलक के