मिलती है नज़र उन से तो खो जाते हैं हम और
मंज़िल के क़रीब आ के बहकते हैं क़दम और
मारे हुए हैं कश्मकश-ए-वहम-ओ-यकीं के
टूटे हुए हर बुत से तराशे हैं सनम और
ये बात समझते ही नहीं हज़रत-ए-नासेह
सिलता है अगर चाक तो खुलता है भरम और
तदबीर का हर नक़्श दिल-आवेज़ है लेकिन
है कातिब-ए-तक़दीर का अंदाज़-ए-रक़म और
जज़्बात पे मोहरें न लगी हैं न लगेंगी
होती है ज़बाँ बंद तो चलता है क़लम और
शायद ये सिला तर्क-ए-तलब का है 'फ़रीदी'
बढ़ती ही गई वुसअ'त-ए-दामान-करम और
ग़ज़ल
मिलती है नज़र उन से तो खो जाते हैं हम और
मुग़ीसुद्दीन फ़रीदी