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मिलती है नज़र उन से तो खो जाते हैं हम और | शाही शायरी
milti hai nazar un se to kho jate hain hum aur

ग़ज़ल

मिलती है नज़र उन से तो खो जाते हैं हम और

मुग़ीसुद्दीन फ़रीदी

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मिलती है नज़र उन से तो खो जाते हैं हम और
मंज़िल के क़रीब आ के बहकते हैं क़दम और

मारे हुए हैं कश्मकश-ए-वहम-ओ-यकीं के
टूटे हुए हर बुत से तराशे हैं सनम और

ये बात समझते ही नहीं हज़रत-ए-नासेह
सिलता है अगर चाक तो खुलता है भरम और

तदबीर का हर नक़्श दिल-आवेज़ है लेकिन
है कातिब-ए-तक़दीर का अंदाज़-ए-रक़म और

जज़्बात पे मोहरें न लगी हैं न लगेंगी
होती है ज़बाँ बंद तो चलता है क़लम और

शायद ये सिला तर्क-ए-तलब का है 'फ़रीदी'
बढ़ती ही गई वुसअ'त-ए-दामान-करम और