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मीर-ए-महफ़िल न हुए गर्मी-ए-महफ़िल तो हुए | शाही शायरी
mir-e-mahfil na hue garmi-e-mahfil to hue

ग़ज़ल

मीर-ए-महफ़िल न हुए गर्मी-ए-महफ़िल तो हुए

आरज़ू लखनवी

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मीर-ए-महफ़िल न हुए गर्मी-ए-महफ़िल तो हुए
शम्अ'-ए-ताबाँ न सही जलता हुआ दिल तो हुए

न सही ख़ाक के पुतलों में सिफ़ात-ए-मलकी
बारे इस बार-ए-वफ़ा के मुतहम्मिल तो हुए

हौसले दिल के मोहब्बत में जो पिसते ही रहे
कर के हिम्मत तिरे ग़मज़ों के मुक़ाबिल तो हुए

पुरशि्स-ए-ग़म-ज़दगाँ बहर-ए-तफ़न्नुन ही सही
ख़ैर से आप भी इस बज़्म में शामिल तो हुए

बे-असर आह से भी इतनी तसल्ली है ज़रूर
मुँह तका करते थे जो वो किसी क़ाबिल तो हुए

आन रख ली तिरी शमशीर-ए-अदा की यूँ भी
जिन को मरना नहीं आता था वो बिस्मिल तो हुए

सनद-ए-सब्र सही पाक दिलों के नासूर
ऐसे मक़्तूल भी इक तरह के क़ातिल तो हुए

रश्क-ए-दुश्मन की तलाफ़ी को ये पहलू नहीं कम
ग़म-ए-जाँ-काह-ए-मोहब्बत के वो क़ातिल तो हुए

ख़ुद से दुख मोल लें ये काम कुछ आसान न था
खा के इक चोट मज़े दर्द के हासिल तो हुए

ख़ुद-कुशी में तो ख़लल 'आरज़ू' आया लेकिन
हाथ उन के मिरी गर्दन में हमाइल तो हुए