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मेरी ईज़ा में ख़ुशी जब आप की पाते हैं लोग | शाही शायरी
meri iza mein KHushi jab aap ki pate hain log

ग़ज़ल

मेरी ईज़ा में ख़ुशी जब आप की पाते हैं लोग

रंगीन सआदत यार ख़ाँ

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मेरी ईज़ा में ख़ुशी जब आप की पाते हैं लोग
तो मुझे किस किस तरह से आ के धमकाते हैं लोग

हाथ क्या आता है उन के कुछ नहीं मालूम क्यूँ
मुझ को तुम से और तुम को मुझ से छुड़वाते हैं लोग

एक तो कुछ जी ही जी में रुक रहे हैं मुझ से वो
दूसरे जा जा के उन को और भड़काते हैं लोग

मेरे उन के सुल्ह अज़-बस ख़ल्क़ को है नागवार
वो तो हैं कुछ सर्द लेकिन उन को गर्माते हैं लोग

रात और दिन सोच रहता यही 'रंगीं' मुझे
मैं तो सब से रास्त हूँ क्यूँ मुझ से बल खाते हैं लोग