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मेरी दुनिया में अभी रक़्स-ए-शरर होता है | शाही शायरी
meri duniya mein abhi raqs-e-sharar hota hai

ग़ज़ल

मेरी दुनिया में अभी रक़्स-ए-शरर होता है

अंजुम आज़मी

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मेरी दुनिया में अभी रक़्स-ए-शरर होता है
जो भी होता है ब-अंदाज़-ए-दिगर होता है

भूल जाते हैं तिरे चाहने वाले तुझ को
इस क़दर सख़्त ये हस्ती का सफ़र होता है

अब न वो जोश-ए-वफ़ा है न वो अंदाज़-ए-तलब
अब भी लेकिन तिरे कूचे से गुज़र होता है

दिल में अरमान थे क्या अहद-ए-बहाराँ के लिए
चाक-ए-गुल देख के अब चाक-ए-जिगर होता है

हम तो हँसते भी हैं जी जान से जाने के लिए
तुम जो रोते हो तो आँसू भी गुहर होता है

सैंकड़ों ज़ख़्म उसे मिलते हैं इस दुनिया से
कोई दिल तेरा तलबगार अगर होता है

क़ाफ़िला लुटता है जिस वक़्त सर-ए-राहगुज़र
उस घड़ी क़ाफ़िला-सालार किधर होता है

'अंजुम'-ए-सोख़्ता-जाँ को है ख़ुशी की उम्मीद
रात में जैसे कभी रंग-ए-सहर होता है