मेरे ख़तों को जलाने से कुछ नहीं होगा
हवा में राख उड़ाने से कुछ नहीं होगा
समझने वाले तो दिल की ज़बाँ समझते हैं
मोहब्बतों को जताने से कुछ नहीं होगा
सितम-ज़रीफ़ी रही वक़्त की जो दिल टूटा
किसी पे दोश लगाने से कुछ नहीं होगा
नई उड़ान की ख़ातिर परों को तोल ज़रा
क़फ़स में शोर मचाने से कुछ नहीं होगा
कोई तो तीर निशाने पे ठीक से पहुँचे
हवा में तीर चलाने से कुछ नहीं होगा
नए गुलों को खिलाओ दिल-ए-ज़मीन पे तुम
दिल ये कबाब बनाने से कुछ नहीं होगा
नई उमीद नए रास्ते तलाश करो
हमेशा मर्सिया गाने से कुछ नहीं होगा
बदन से रूह निकल भी चुकी है अब हमदम
फ़ुज़ूल अश्क बहाने से कुछ नहीं होगा
ज़बाँ से बात कई सच निकल गई हो गर
बहाने लाख बनाने से कुछ नहीं होगा
तुम्हारे जाने से पत्थर में ढल चुकी 'सीमा'
तुम्हारे लौट के आने से कुछ नहीं होगा
ग़ज़ल
मेरे ख़तों को जलाने से कुछ नहीं होगा
सीमा शर्मा मेरठी