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मेरे हाथों में नहीं कोई हुनर अब के बरस | शाही शायरी
mere hathon mein nahin koi hunar ab ke baras

ग़ज़ल

मेरे हाथों में नहीं कोई हुनर अब के बरस

इरशाद अरशी

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मेरे हाथों में नहीं कोई हुनर अब के बरस
जाने किस इस्म पे खुलता है ये दर अब के बरस

कुछ तो भुगता गए ना-कर्दा गुनाहों की सज़ा
ज़द पे आँधी के हैं कुछ और शजर अब के बरस

रक़्स आसेब का जारी है मिरे शहरों में
किस को दरकार है किस शख़्स का सर अब के बरस

जी जलाएगा ये आवारा ओ बे-दर होना
दिल दुखाएँगे ये महके हुए घर अब के बरस

तेरी उल्फ़त तिरी चाहत तिरी शफ़क़त के तुफ़ैल
कितना बरसेगा मिरा दीदा-ए-तर अब के बरस

मुझ को छू मेरे शब-ओ-रोज़ को रौशन कर दे
मेरे आँगन में भी पल भर को ठहर अब के बरस

तू ने हर बार बहुत ख़ुद को बिगाड़ा 'अरशी'
मेरी गर मान तो जी भर के सँवर अब के बरस