मेरे बदन में थी तिरी ख़ुशबू-ए-पैरहन
शब भर मिरे वजूद में महका तिरा बदन
हूँ अपने ही हुजूम-ए-तमन्ना में अजनबी
मैं अपने ही दयार-ए-नफ़स में जिला-वतन
सब पत्थरों पे नाम लिखे थे रफ़ीक़ों के
हर ज़ख़्म-ए-सर है संग-ए-मलामत पे ख़ंदा-ज़न
अब दश्त-ए-बे-अमाँ ही में शायद मिले पनाह
घर की खुली फ़ज़ा में तो बढ़ने लगी घुटन
हर आदमी है पैकर-ए-फ़रियाद इन दिनों
हर शख़्स के बदन पे है काग़ज़ का पैरहन
ख़ुश-फ़हम हैं कि सिर्फ़ रिवायत परस्त हैं
ख़ुश-फ़िक्र थे कि ले उड़े तारीख़ का कफ़न
इस दौर में यहाँ भी फ़िलिस्तीन की तरह
कुछ लोग बे-ज़मीं हुए कुछ लोग बे-वतन
मिस्ल-ए-सबा कोई इधर आया उधर गया
घर में बसी हुई है मगर बू-ए-पैरहन
'सरशार' मैं ने इश्क़ के मअनी बदल दिए
इस आशिक़ी में पहले न था वस्ल का चलन
ग़ज़ल
मेरे बदन में थी तिरी ख़ुशबू-ए-पैरहन
सरशार सिद्दीक़ी