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मेलों में फैलते गए पौदे कपास के | शाही शायरी
melon mein phailte gae paude kapas ke

ग़ज़ल

मेलों में फैलते गए पौदे कपास के

ख़ाक़ान ख़ावर

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मेलों में फैलते गए पौदे कपास के
मुहताज कितने लोग हैं फिर भी लिबास के

क्या क्या न डूबते रहे औरों की ज़ात में
क्या क्या मुज़ाहिरे न किए हम ने प्यास के

हर आदमी को रंग से है इन दिनों ग़रज़
क़िस्से पुराने हो गए फूलों की बास के

'ख़ावर' कहीं हवा का न है धूप का गुज़र
ऊँचे हैं सब मकान मिरे आस पास के