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मेहर-ए-ख़ूबाँ ख़ाना-अफ़रोज़-ए-दिल-अफ़सुर्दा है | शाही शायरी
mehr-e-KHuban KHana-afroz-e-dil-afsurda hai

ग़ज़ल

मेहर-ए-ख़ूबाँ ख़ाना-अफ़रोज़-ए-दिल-अफ़सुर्दा है

मीर मोहम्मदी बेदार

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मेहर-ए-ख़ूबाँ ख़ाना-अफ़रोज़-ए-दिल-अफ़सुर्दा है
शो'ला आब-ए-ज़ि़ंदगानी-ए-चराग़-ए-मुर्दा है

मुर्ग़-ए-दिल तेरी निगह का हो चुका अब तो शिकार
जा कहाँ सकता है याँ से सैद-ए-नावक-ख़ुर्दा है

है बहार-ए-रंग-ओ-बू-ए-ताज़ा रू-ए-ख़स्म-ए-जाँ
सालिम आफ़ात-ए-हवादिस से गुल-ए-पज़मुर्दा है

जान-ओ-ईमाँ दीन-ओ-दिल जो था बिसात अपना दिया
और क्या चाहे है तू मुझ से जो अब आज़ुर्दा है

ऐ शह-ए-इक़्लीम-ए-ख़ूबी ता-सर-ए-दरवाज़ा आ
नज़्र को 'बेदार' तेरी जाँ-ब-कफ़-आवर्दा है