मेहर-ए-ख़ूबाँ ख़ाना-अफ़रोज़-ए-दिल-अफ़सुर्दा है
शो'ला आब-ए-ज़ि़ंदगानी-ए-चराग़-ए-मुर्दा है
मुर्ग़-ए-दिल तेरी निगह का हो चुका अब तो शिकार
जा कहाँ सकता है याँ से सैद-ए-नावक-ख़ुर्दा है
है बहार-ए-रंग-ओ-बू-ए-ताज़ा रू-ए-ख़स्म-ए-जाँ
सालिम आफ़ात-ए-हवादिस से गुल-ए-पज़मुर्दा है
जान-ओ-ईमाँ दीन-ओ-दिल जो था बिसात अपना दिया
और क्या चाहे है तू मुझ से जो अब आज़ुर्दा है
ऐ शह-ए-इक़्लीम-ए-ख़ूबी ता-सर-ए-दरवाज़ा आ
नज़्र को 'बेदार' तेरी जाँ-ब-कफ़-आवर्दा है
ग़ज़ल
मेहर-ए-ख़ूबाँ ख़ाना-अफ़रोज़-ए-दिल-अफ़सुर्दा है
मीर मोहम्मदी बेदार