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मज़हब-ए-इश्क़ में शजरा नहीं देखा जाता | शाही शायरी
mazhab-e-ishq mein shajara nahin dekha jata

ग़ज़ल

मज़हब-ए-इश्क़ में शजरा नहीं देखा जाता

हाशिम रज़ा जलालपुरी

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मज़हब-ए-इश्क़ में शजरा नहीं देखा जाता
हम परिंदों में क़बीला नहीं देखा जाता

लश्कर-ए-ख़्वाब किसी तौर उतर आँखों में
रात भर नींद का रस्ता नहीं देखा जाता

सूरमा बाप ने तलवार भी गिरवी रख दी
हाथ में बच्चों के कासा नहीं देखा जाता

तुम मिरे यार हो कैसे मैं हरा दूँ तुम को
मुझ से दुश्मन को भी पसपा नहीं देखा जाता

इस ज़माने को फ़क़त मौत नज़र आती है
डूबने वाले का जज़्बा नहीं देखा जाता

ऐ अज़ीज़ो! मुझे मिट्टी के हवाले कर दो
मुझ से अब जिस्म का मलबा नहीं देखा जाता

जब से दरिया पे हुआ प्यास का क़ब्ज़ा 'हाशिम'
लब-ए-दरिया कोई प्यासा नहीं देखा जाता