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मज़ाक़-ए-ग़म उड़ाना अब मुझे अच्छा नहीं लगता | शाही शायरी
mazaq-e-gham uDana ab mujhe achchha nahin lagta

ग़ज़ल

मज़ाक़-ए-ग़म उड़ाना अब मुझे अच्छा नहीं लगता

मोहम्मद अली साहिल

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मज़ाक़-ए-ग़म उड़ाना अब मुझे अच्छा नहीं लगता
किसी का मुस्कुराना अब मुझे अच्छा नहीं लगता

कभी नींदें चुराना जिन की मुझ को अच्छा लगता था
नज़र उन का चुराना अब मुझे अच्छा नहीं लगता

जिन्हें मुझ पर यक़ीं है मेरी चाहत पर भरोसा है
भरम उन का मिटाना अब मुझे अच्छा नहीं लगता

नशेमन मेरे दिल का जब से तिनका तिनका बिखरा है
कोई भी आशियाना अब मुझे अच्छा नहीं लगता

मोहब्बत करने वालों ने जो छोड़े हैं ज़माने में
निशाँ उन के मिटाना अब मुझे अच्छा नहीं लगता

तिरी दुनिया से शायद भर चुका है मेरा दिल 'साहिल'
यहाँ का आब-ओ-दाना अब मुझे अच्छा नहीं लगता