EN اردو
मज़ा शबाब का जब है कि बा-ख़ुदा भी रहे | शाही शायरी
maza shabab ka jab hai ki ba-KHuda bhi rahe

ग़ज़ल

मज़ा शबाब का जब है कि बा-ख़ुदा भी रहे

शायर फतहपुरी

;

मज़ा शबाब का जब है कि बा-ख़ुदा भी रहे
बुतों के साथ रहे और पारसा भी रहे

मज़ाक़-ए-हुस्न-परस्ती क़ुबूल है मुझ को
अगर निगाह हक़ीक़त से आश्ना भी रहे

निज़ाम-ए-दहर जुदा कर रहा है दोनों को
मैं चाहता हूँ कली भी रहे सबा भी रहे

कहाँ से जान बचे जब वो शोख़-ए-सेहर-निगाह
जफ़ा-शिआ'र भी हो माइल-ए-वफ़ा भी रहे

मुझे मिला है वो रंगीं-अदा मुक़द्दर से
जो दिल में जल्वा-नुमा भी रहे छुपा भी रहे

चमन-परस्त वही है कि जिस का ज़ौक़-ए-सलीम
गुलों के साए में काँटों से खेलता भी रहे

वो रिंद-ए-पाक-तबीअ'त है आप का 'शाइर'
शराब भी न पिए और झूमता भी रहे