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मौसम-ए-गुल में कोई कब होश-मंदाना चला | शाही शायरी
mausam-e-gul mein koi kab hosh-mandana chala

ग़ज़ल

मौसम-ए-गुल में कोई कब होश-मंदाना चला

कशफ़ी लखनवी

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मौसम-ए-गुल में कोई कब होश-मंदाना चला
फूल देखे जिस ने काँटों में वो दीवाना चला

एक ही मंज़िल पे हर राही को जाना था मगर
ज़ोम-ए-बातिल में चला जो भी जुदागाना चला

उस के हर इक गाम पर थी कामरानी साथ साथ
कारगाह-ए-दहर में जो सरफ़रोशाना चला

वा'इज़ान-ए-कम-नज़र हैं दुश्मन-ए-तमकीन-ए-होश
मिट गया वो इन की बातों पर जो दीवाना चला

मय-कदे में रंज-ओ-ग़म कैसा कहाँ की मुश्किलें
हर ख़लिश जाती रही जब दौर-ए-पैमाना चला

आफ़रीं सद आफ़रीं ये हिम्मत ज़ौक़-ए-तलब
शम्अ' के जलते ही जल मरने को परवाना चला

कोई असरार मशिय्यत हो न पाया आश्कार
बे-ख़बर आया था 'कशफ़ी' और बेगाना चला