मौजूद हैं वो भी बालीं पर अब मौत का टलना मुश्किल है
इक-तरफ़ा कशाकश नज़अ में है दम का भी निकलना मुश्किल है
अनजाने में जो बे-राह चले वो राह पे आ सकता है मगर
बे-राह चले जो दानिस्ता बस उस का सँभलना मुश्किल है
ज़ाहिर न सही दर-पर्दा सही दुश्मन भी हिफ़ाज़त करते हैं
काँटे हों निगहबाँ जिस गुल के उस गुल का मसलना मुश्किल है
हैं इश्क़ की राहें पेचीदा मंज़िल पे पहुँचना सहल नहीं
रस्ते में अगर दिल बैठ गया फिर उस का सँभलना मुश्किल है
आग़ाज़-ए-मोहब्बत में 'आजिज़' रुकती न थी मौज-ए-अश्क-ए-रवाँ
अंजाम अब इन ख़ुश्क आँखों से इक अश्क निकलना मुश्किल है
ग़ज़ल
मौजूद हैं वो भी बालीं पर अब मौत का टलना मुश्किल है
आजिज़ मातवी