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मसरफ़ के बग़ैर जल रहा हूँ | शाही शायरी
masraf ke baghair jal raha hun

ग़ज़ल

मसरफ़ के बग़ैर जल रहा हूँ

गोपाल मित्तल

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मसरफ़ के बग़ैर जल रहा हूँ
मैं सूने मकान का दिया हूँ

मंज़िल है न कोई जादा फिर भी
आशोब-ए-सफ़र में मुब्तला हूँ

महमिल भी नहीं कोई नज़र में
सहरा की भी ख़ाक छानता हूँ

मंसूर न दावा-ए-अनल-हक़
सूली पे मगर लटक रहा हूँ

ऐ अहल-ए-करम नहीं मैं साइल
रस्ते पे यूँही खड़ा हुआ हूँ

अब शिकवा-ए-संग-ओ-ख़िश्त कैसा
जब तेरी गली में आ गया हूँ

इस शहर में वज़्-ए-कज-कुलाही
मैं वाक़ई दर-ख़ुर-ए-सज़ा हूँ