मरे दिल बीच नक़्श-ए-नाज़नीं है
मगर ये दिल नहीं यारो नगीं है
कमर पर तेरी उस का दिल हुआ महव
तिरा आशिक़ बहुत बारीक-बीं है
जो कहिए उस के हक़ में कम है बे-शक
परी है हूर है रूह-उल-अमीं है
ग़ुलाम उस के हैं सारे अब सिरीजन
नगर में हुस्न के कुर्सी-नशीं है
नहीं अब जग में वैसा और पीतम
सबी ख़ुश-सूरताँ सूँ नाज़नीं है
मुझे है मोशगाफ़ी में महारत
जो नित दिल महव ख़त्त-ए-अम्बरीं है
नज़र कर लुत्फ़ की ऐ शाह-ए-ख़ूबाँ
तिरा 'फ़ाएज़' ग़ुलाम-ए-कम-तरीं है
ग़ज़ल
मरे दिल बीच नक़्श-ए-नाज़नीं है
सदरुद्दीन मोहम्मद फ़ाएज़