मक़्तल में अपनी मौत का अरमाँ लिए हुए
हम जा रहे हैं ज़ीस्त का सामाँ लिए हुए
आता है कोई दर्द का दरमाँ लिए हुए
ऐ बख़्त जाग गर्दिश-ए-दौराँ लिए हुए
ऐ वक़्त आज फिर से इन्हें तार-तार कर
बैठे हैं हम भी जैब-ओ-गरेबाँ लिए हुए
निकले हैं अश्क ज़ब्त के दामन को चीर कर
पहलू में अपने शोरिश-ए-तूफ़ाँ लिए हुए
बुझ जाएँ फिर न गोर-ए-ग़रीबाँ के ये चराग़
ख़ौफ़-ए-हवा से हैं तह-ए-दामाँ लिए हुए
जाता है क्या हरीफ़ सू-ए-कू-ए-दोस्त फिर
दाम-ए-हवस में दाना-ए-पिनहाँ लिए हुए
ख़ा ली शिकस्त फ़त्ह-ए-मुबीं के यक़ीन से
हाँ 'नूर' अब के हिम्मत-ए-मर्दां लिए हुए
ग़ज़ल
मक़्तल में अपनी मौत का अरमाँ लिए हुए
नूर मोहम्मद नूर