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मक़्तल-ए-जाँ से कि ज़िंदाँ से कि घर से निकले | शाही शायरी
maqtal-e-jaan se ki zindan se ki ghar se nikle

ग़ज़ल

मक़्तल-ए-जाँ से कि ज़िंदाँ से कि घर से निकले

उम्मीद फ़ाज़ली

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मक़्तल-ए-जाँ से कि ज़िंदाँ से कि घर से निकले
हम तो ख़ुशबू की तरह निकले जिधर से निकले

गर क़यामत ये नहीं है तो क़यामत क्या है
शहर जलता रहा और लोग न घर से निकले

जाने वो कौन सी मंज़िल थी मोहब्बत की जहाँ
मेरे आँसू भी तिरे दीदा-ए-तर से निकले

दर-ब-दरी का हमें तअना न दे ऐ चश्म-ए-ग़ज़ाल
देख वो ख़्वाब कि जिस के लिए घर से निकले

मेरा रहज़न हुआ क्या क्या न पशेमान कि जब
इस के नामे मेरे असबाब-ए-सफ़र से निकले

बर-सर-ए-दोश रहे या सर-ए-नेज़ा या-रब
हक़-परस्ती का न सौदा कभी सर से निकले