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मक़्दूर क्या मुझे कि कहूँ वाँ कि याँ रहे | शाही शायरी
maqdur kya mujhe ki kahun wan ki yan rahe

ग़ज़ल

मक़्दूर क्या मुझे कि कहूँ वाँ कि याँ रहे

मीर मोहम्मदी बेदार

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मक़्दूर क्या मुझे कि कहूँ वाँ कि याँ रहे
हैं चश्म-ओ-दिल घर उस के जहाँ चाहे वाँ रहे

मिस्ल-ए-निगाह घर से न बाहर रखा क़दम
फिर आए हर तरफ़ ये जहाँ के तहाँ रहे

ने बुत-कदा से काम न मतलब हरम से था
महव-ए-ख़याल-ए-यार रहे हम जहाँ रहे

जिस के कि हो नक़ाब से बाहर शुआ-ए-हुस्न
वो रू-ए-आफ़्ताब ख़जिल कब निहाँ रहे

आए तो हो प दिल को तसल्ली हो तब मिरे
इतना कहो कि आज न जावेंगे हाँ रहे

हस्ती ही में है सैर-ए-अदम उस को याँ जिसे
फ़िक्र-ए-मियान-ए-यार ओ ख़याल-ए-दहाँ रहे

ग़ीबत ही में है उस की हमारा ज़ुहूर याँ
वो जल्वा-गर जब आगे हुआ हम कहाँ रहे

'बेदार' ज़ुल्फ़ खींचे इधर चश्म-ए-यार उधर
हैराँ है दिल कहाँ न रहे किस के हाँ रहे