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मंज़िलों उस को आवाज़ देते रहे मंज़िलों जिस की कोई ख़बर भी न थी | शाही शायरी
manzilon usko aawaz dete rahe manzilon jis ki koi KHabar bhi na thi

ग़ज़ल

मंज़िलों उस को आवाज़ देते रहे मंज़िलों जिस की कोई ख़बर भी न थी

ताब असलम

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मंज़िलों उस को आवाज़ देते रहे मंज़िलों जिस की कोई ख़बर भी न थी
दामन-ए-शब में कोई सितारा न था शम्अ' कोई सर-ए-रहगुज़र भी न थी

इक बगूला उठा दश्त में खो गया इक किरन थी जो ज़ुल्मत में गुम हो गई
ज़िंदगी जिस को समझे थे हम ज़िंदगी ज़िंदगी मिस्ल-ए-रक़्स-ए-शरर भी न थी

फ़स्ल-ए-गुल से था आबाद सेहन-ए-चमन फ़स्ल-ए-गुल जो गई रौनक़ें लुट गईं
यूँ ख़मोशी से शाम-ए-ख़िज़ाँ आएगी अहल-ए-गुलशन को इस की ख़बर भी न थी

इस तरह मंज़िल-ए-आरज़ू कट गई इस तरह ये घनी तीरगी छट गई
अपने पाँव पे यारो ख़राशें तो क्या अपने चेहरे पे गर्द-ए-सफ़र भी न थी

फिर से आँखों के साग़र छलकने लगे मौज-दर-मौज आँसू निकलने लगे
'ताब' घर में वो मेहमान फिर आ गया जिस के आने की कोई ख़बर भी न थी