मंज़िलों तक मंज़िलों की आरज़ू रह जाएगी
कारवाँ थक जाएँ फिर भी जुस्तुजू रह जाएगी
ऐ दिल-ए-नादाँ तुझे भी चाहिए पास-ए-अदब
वो जो रूठे तो अधूरी गुफ़्तुगू रह जाएगी
ग़ैर के आने न आने से भला क्या फ़ाएदा
तुम जो आ जाओ तो मेरी आबरू रह जाएगी
इस भरी महफ़िल में तेरी एक मैं ही तिश्ना-लब
साक़िया क्या ख़्वाहिश-ए-जाम-ओ-सुबू रह जाएगी
हम अगर महरूम होंगे अहल-ए-फ़न की दाद से
शेर कहने की किसे फिर आरज़ू रह जाएगी

ग़ज़ल
मंज़िलों तक मंज़िलों की आरज़ू रह जाएगी
जमील मुरस्सापुरी