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मंज़िलों को नज़र में रक्खा है | शाही शायरी
manzilon ko nazar mein rakkha hai

ग़ज़ल

मंज़िलों को नज़र में रक्खा है

ताबिश देहलवी

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मंज़िलों को नज़र में रक्खा है
जब क़दम रहगुज़र में रक्खा है

इक हयूला है घर ख़राबी का!
वर्ना क्या ख़ाक घर में रक्खा है

हम ने हुस्न-ए-हज़ार-शेवा को
जल्वा जल्वा नज़र में रक्खा है

चाहिए सिर्फ़ हिम्मत-ए-परवाज़
बाग़ तो बाल-ओ-पर में रक्खा है

हरम-ओ-दैर से अलग हम ने
अभी इक सज्दा सर में रक्खा है

मेरी हिम्मत ने अपनी मंज़िल का
फ़ासला रहगुज़र में रक्खा है

रात दिन धूप छाँव का आलम
क्या तमाशा नज़र में रक्खा है