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मंज़िल मिले न कोई भी रस्ता दिखाई दे | शाही शायरी
manzil mile na koi bhi rasta dikhai de

ग़ज़ल

मंज़िल मिले न कोई भी रस्ता दिखाई दे

सय्यदा नफ़ीस बानो शम्अ

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मंज़िल मिले न कोई भी रस्ता दिखाई दे
दुनिया फ़क़त ये खेल तमाशा दिखाई दे

रिश्तों का इक हुजूम था मैं ढूँढती रही
हसरत लिए हुए कोई अपना दिखाई दे

मुझ को मिटा दे इस तरह दुनिया से ऐ ख़ुदा
तारीख़ में भी कोई न मुझ सा दिखाई दे

उस ने जलाया मेरे नशेमन को फिर कहा
हद्द-ए-निगाह तक तुझे सहरा दिखाई दे

ये ज़िंदगी की बाज़ीगरी तू भी सीख ले
कर कर के क़त्ल तू भी मसीहा दिखाई दे

रिश्तों का ख़ोल ओढ़ के मिलते हैं लोग आज
हर आदमी मुझे यहाँ तन्हा दिखाई दे

करता रहे जुनूँ ये तआ'क़ुब सराब का
प्यासे को ख़्वाब में अभी दरिया दिखाई दे

ऐ 'शम्अ'' किस ने दी थी तुझे ऐसी बद-दुआ'
घर में कोई चराग़ न जलता दिखाई दे