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मंज़िल-ए-बे-निशाँ से क्या हासिल | शाही शायरी
manzil-e-be-nishan se kya hasil

ग़ज़ल

मंज़िल-ए-बे-निशाँ से क्या हासिल

साबिर शाह साबिर

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मंज़िल-ए-बे-निशाँ से क्या हासिल
गुम-शुदा कारवाँ से क्या हासिल

तंग होती ज़मीं का टुकड़ा दे
वुसअत-ए-आसमाँ से क्या हासिल

क्या करें जब कि बुझ गईं आँखें
रौनक-ए-बे-कराँ से क्या हासिल

दाद-ख़्वाही का हक़ भी छीन लिया
अब कि दार-उल-अमाँ से क्या हासिल

लम्स रिश्तों का पाएँ दीवारें
घर अता कर मकाँ से क्या हासिल

लुट गईं जब मिरी मता-ए-हयात
दौलत-ए-दीगराँ से क्या हासिल

नज़्र कर 'ज़ौक़' सा फ़सीह सुख़न
ऐसी कज-मज ज़बाँ से क्या हासिल