मन के आँगन में ख़यालों का गुज़र कैसा है
ये चहकता हुआ वीरान सा घर कैसा है
मेरा माज़ी जहाँ बिखरा सा पड़ा है हर सू
अब वो पीपल के तले उजड़ा खंडर कैसा है
सख़्त पथराव था कल रात तिरी बस्ती में
दिन निकलने पे ये देखेंगे कि सर कैसा है
जान देना है हमें एक शिवाले के क़रीब
आप बतलाएँ ज़रा आप का दर कैसा है
दिल के मदफ़न में 'तपिश' दफ़्न है एहसास का जिस्म
तुम ने छोड़ा जिसे देखो वो नगर कैसा है
ग़ज़ल
मन के आँगन में ख़यालों का गुज़र कैसा है
मोनी गोपाल तपिश