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मन के आँगन में ख़यालों का गुज़र कैसा है | शाही शायरी
man ke aangan mein KHayalon ka guzar kaisa hai

ग़ज़ल

मन के आँगन में ख़यालों का गुज़र कैसा है

मोनी गोपाल तपिश

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मन के आँगन में ख़यालों का गुज़र कैसा है
ये चहकता हुआ वीरान सा घर कैसा है

मेरा माज़ी जहाँ बिखरा सा पड़ा है हर सू
अब वो पीपल के तले उजड़ा खंडर कैसा है

सख़्त पथराव था कल रात तिरी बस्ती में
दिन निकलने पे ये देखेंगे कि सर कैसा है

जान देना है हमें एक शिवाले के क़रीब
आप बतलाएँ ज़रा आप का दर कैसा है

दिल के मदफ़न में 'तपिश' दफ़्न है एहसास का जिस्म
तुम ने छोड़ा जिसे देखो वो नगर कैसा है