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मकतब में तुझे देख किसे होश-ए-सबक़ है | शाही शायरी
maktab mein tujhe dekh kise hosh-e-sabaq hai

ग़ज़ल

मकतब में तुझे देख किसे होश-ए-सबक़ है

मीर मोहम्मदी बेदार

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मकतब में तुझे देख किसे होश-ए-सबक़ है
हर तिफ़्ल के याँ अश्क से आलूदा वरक़ है

हूँ मुंतज़िर उस महर के आने ही का वर्ना
शबनम की तरह आँखों में दम कोई रमक़ है

देख ऐ चमन-ए-हुस्न तुझे बाग़ में ख़ंदाँ
शबनम नहीं ये गुल पे ख़जालत से अरक़ है

वो चाँद सा मुँह सुर्ख़ दुपट्टा में है रख़्शाँ
या महर कहूँ जल्वा-नुमा ज़ेर-ए-शफ़क़ है

नर्गिस की ज़र-ओ-गुल पे भी वा चश्म-ए-तमा है
इस पर कि ज़र-ओ-सीम का उस पास तबक़ है

दिल उस बत-ए-बे-मेहर को दे मुफ़्त ही खोया
कहते हैं जो कुछ यार मुझे वाक़ई हक़ है

जुज़ तेरे नहीं ग़ैर को रह दिल के नगर में
जब से कि तिरे इश्क़ का याँ नज़्म-ओ-नसक़ है

मज़कूर हुआ याँ मगर उस गुल के दहन का
जो रश्क से हर ग़ुंचा का दिल बाग़ में शक़ है

कर मस्क़ला-ए-ज़िक्र से दिल साफ़ तू अपना
'बेदार' ये आईना तजल्ली-गह-ए-हक़ है