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मकानों के नगर में हम अगर कुछ घर बना लेते | शाही शायरी
makanon ke nagar mein hum agar kuchh ghar bana lete

ग़ज़ल

मकानों के नगर में हम अगर कुछ घर बना लेते

नवीन सी. चतुर्वेदी

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मकानों के नगर में हम अगर कुछ घर बना लेते
तो अपनी बस्तियों को स्वर्ग से बढ़ कर बना लेते

हमें अपने इलाक़ों से मोहब्बत हो नहीं पाई
वगर्ना ज़िंदगी को और भी बेहतर बना लेते

समय से लड़ रहे थे और लम्हे कर दिए बरबाद
हमें करना ये था लम्हात का लश्कर बना लेते

ग़नीमत है कि जंगल के उसूलों को नहीं माना
वगर्ना आशियानों को अजाइब-घर बना लेते

अगर सौदा ही करना था उसे तो बोल तो देता
मोहब्बत के लिए हम दिल को भी दफ़्तर बना लेते

हवस हैराँ न कर पाती तलब तन्हा न कर पाती
अगर हम हसरतों को प्यार का सागर बना लेते

कहीं ऐसा जो हो पाता कि लड़ते ही नहीं हम तुम
बहुत मुमकिन था हर कंकर को शिव-शंकर बना लेते