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मैं वो मजनूँ कि इक सहरा है मुझ में | शाही शायरी
main wo majnun ki ek sahra hai mujh mein

ग़ज़ल

मैं वो मजनूँ कि इक सहरा है मुझ में

इसहाक़ विरदग

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मैं वो मजनूँ कि इक सहरा है मुझ में
वो सहरा भी बहुत सिमटा है मुझ में

मुझे ख़ुद से निकालेगा वो आख़िर
ब-नाम-ए-इश्क़ जो आया है मुझ में

तुम्हारी याद को कैसे निकालूँ
कि बाक़ी कुछ नहीं बचता है मुझ में

किसी के बर्फ़ से लहजे के हाथों
अजब शो'ला सा इक भड़का है मुझ में

कोई ता'वीज़ का पानी पिला दो
कोई जादूगरी करता है मुझ में

कमीनी को ख़बर इस की नहीं है
कि सर से पाँव तक धोका है मुझ में

तुम्हारे बा'द ये देखा नहीं है
न-जाने कौन अब रहता है मुझ में

तुम्हें मेरी ज़रूरत भी पड़ेगी
पुराने शहर का नक़्शा है मुझ में

तुम्हारी सम्त हिजरत कर चुका है
कहाँ 'इसहाक़' अब रहता है मुझ में