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मैं वो मजनूँ हूँ कि आबाद न उजड़ा समझूँ | शाही शायरी
main wo majnun hun ki aabaad na ujDa samjhun

ग़ज़ल

मैं वो मजनूँ हूँ कि आबाद न उजड़ा समझूँ

वली उज़लत

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मैं वो मजनूँ हूँ कि आबाद न उजड़ा समझूँ
मुश्त-ए-ख़ाक अपनी उड़ा कर उसे सहरा समझूँ

इस क़दर महव हूँ इन शोला-रुख़ों का जूँ शम्अ
कि न जलने को पहचानूँ न तमाशा समझूँ

चश्मक-ए-यार हैं मुझ शम्अ के हक़ में गुल-गीर
दम ये क़ैंची के मैं अन्फ़ास-ए-मसीहा समझूँ

गर्दिश-ए-चश्म-ए-सजन ले गया ख़ातिर से ग़ुबार
उस को दश्त-ए-दिल-ए-'उज़लत' का बगूला समझूँ