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मैं तिरे शहर में आया तो ठहर जाऊँगा | शाही शायरी
main tere shahr mein aaya to Thahar jaunga

ग़ज़ल

मैं तिरे शहर में आया तो ठहर जाऊँगा

माहिर अब्दुल हई

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मैं तिरे शहर में आया तो ठहर जाऊँगा
साया-ए-अब्र नहीं हूँ कि गुज़र जाऊँगा

जज़्बा-ए-दिल का वो आलम है तो इंशा-अल्लाह
दर्द बन कर तिरे पहलू में उतर जाऊँगा

महज़ बेकार न समझें मुझे दुनिया वाले
ज़िंदगी है तो कोई काम भी कर जाऊँगा

दे के आवाज़ तो देखे शब-ए-तारीक मुझे
रौशनी बन के फ़ज़ाओं में बिखर जाऊँगा

छोड़ ऐ रौनक़-ए-बाज़ार मिरा दामन-ए-दिल
शाम आँगन में उतर आई है घर जाऊँगा

मैं मुजाहिद हूँ किसी से नहीं डरता लेकिन
सामना ख़ुद का जो हो जाए तो डर जाऊँगा

रास्ते साफ़ हैं सब फ़ज़्ल-ए-ख़ुदा से 'माहिर'
कोई दीवार न रोकेगी जिधर जाऊँगा