मैं सोज़-ए-दरूँ अपना दिखा भी नहीं सकता
क्या मुझ पे गुज़रती है बता भी नहीं सकता
रौशन है इसी से मिरा काशाना-ए-हस्ती
इस शम-ए-मोहब्बत को बुझा भी नहीं सकता
है बार-ए-समाअत उसे इज़हार-ए-तमन्ना
ये हाल-ए-ज़बूँ उस को सुना भी नहीं सकता
ज़िंदा है ज़मीर अपना अभी, सामने उस के
अपना सर-ए-तस्लीम झुका भी नहीं सकता
हद होती है इक नाज़ उठाने की किसी के
ये बार-ए-गराँ अब मैं उठा भी नहीं सकता
इस हाल में कब तक यूँही घुट घुट के जियूँगा
रूठा है वो ऐसे कि मना भी नहीं सकता
था ग़ैर जिसे अपना समझता था बही-ख़्वाह
अब महफ़िल-ए-याराँ वो सजा भी नहीं सकता
नाफ़िज़ है ज़बाँ-बंदी का दस्तूर अभी तक
क्या दिल पे गुज़रती है बता भी नहीं सकता
हर वक़्त तसव्वुर में है जो अज़्मत-ए-रफ़्ता
खोया हुआ एज़ाज़ वो पा भी नहीं सकता
ख़्वाबों में हसीं ताज-महल करता है तामीर
अपने लिए इक घर जो बना भी नहीं सकता
क्यूँ नींद उड़ाता है वो 'बर्क़ी' की अब उस से
वो वादा-ए-फ़र्दा जो निभा भी नहीं सकता
ग़ज़ल
मैं सोज़-ए-दरूँ अपना दिखा भी नहीं सकता
अहमद अली बर्क़ी आज़मी