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मैं सोचता हूँ कहीं तू ख़फ़ा न हो जाए | शाही शायरी
main sochta hun kahin tu KHafa na ho jae

ग़ज़ल

मैं सोचता हूँ कहीं तू ख़फ़ा न हो जाए

असलम फ़र्रुख़ी

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मैं सोचता हूँ कहीं तू ख़फ़ा न हो जाए
तिरी अना मिरी ज़ंजीर-ए-पा न हो जाए

ये जीती-जागती आँखें ये ख़्वाब सी दुनिया
वुफ़ूर-ए-शौक़ ख़ुद अपनी जज़ा न हो जाए

क़दम क़दम पे बपा जश्न-ए-इम्तिहान-ए-वफ़ा
तिरी तरह कोई दर्द-आश्ना न हो जाए

न देख मुझ को मोहब्बत की आँख से ऐ दोस्त
मिरा वजूद मिरा मुद्दआ न हो जाए

मैं जिस को ढूँड रहा हूँ नशात-ए-क़ुर्बत में
मिरे ख़याल से भी मावरा न हो जाए

ज़मीं की गोद से सूरज निकालने वालो
सितारा-ए-सहरी रहनुमा न हो जाए

हरीम-ए-जाँ में है अर्ज़ां ख़ुमार-ए-तीरा-शबी
ये इस दयार की आब-ओ-हवा न हो जाए

ग़म-ए-फ़िराक़ में लज़्ज़त सही मगर 'असलम'
मिरी हयात मिरा ख़ूँ-बहा न हो जाए