मैं सिर्फ़ वो नहीं जो नज़र आ गया तुझे 
मुज़्दा फिर इज़्न-ए-बार-ए-दिगर आ गया तुझे 
सहरा में जान देने के मौक़े तो अब भी हैं 
वो क्या जुनूँ था ले के जो घर आ गया तुझे 
पहले कभी तो मौत को तुझ से गिला न था 
जीने का आज कैसे हुनर आ गया तुझे 
इस दौर में ये फ़ख़्र भी किस को नसीब है 
चेहरा तो आईने में नज़र आ गया तुझे 
इस शहर में तो कुछ नहीं रुस्वाई के सिवा 
ऐ 'दिल' ये इश्क़ ले के किधर आ गया तुझे
        ग़ज़ल
मैं सिर्फ़ वो नहीं जो नज़र आ गया तुझे
दिल अय्यूबी

