EN اردو
मैं शब-ए-हिज्र क्या करूँ तन्हा | शाही शायरी
main shab-e-hijr kya karun tanha

ग़ज़ल

मैं शब-ए-हिज्र क्या करूँ तन्हा

अब्दुल मतीन नियाज़

;

मैं शब-ए-हिज्र क्या करूँ तन्हा
याद में तेरी गुम रहूँ तन्हा

हैं इधर गर्दिशें ज़माने की
है मुक़ाबिल उधर जुनूँ तन्हा

कितने बे-नूर हैं ये हंगामे
मैं भरे शहर में भी हूँ तन्हा

आदमी घिर गया मसाइल में
रह गई ज़ीस्त बे-सुकूँ तन्हा

वो तो इस दौर के नहीं इंसाँ
मिल गया है जिन्हें सुकूँ तन्हा

हम-सफ़र जब 'नियाज़' अँधेरे हैं
शम्अ' घबरा रही है क्यूँ तन्हा