मैं समुंदर था मुझे चैन से रहने न दिया
ख़ामुशी से कभी दरियाओं ने बहने न दिया
अपने बचपन में जिसे सुन के मैं सो जाता था
मेरे बच्चों ने वो क़िस्सा मुझे कहने न दिया
कुछ तबीअत में थी आवारा मिज़ाजी शामिल
कुछ बुज़ुर्गों ने भी घर में मुझे रहने न दिया
सर-बुलंदी ने मिरी शहर-ए-शिकस्ता में कभी
किसी दीवार को सर पर मिरे ढहने न दिया
ये अलग बात कि मैं नूह नहीं था लेकिन
मैं ने कश्ती को ग़लत सम्त में बहने न दिया
बाद मेरे वही सरदार-ए-क़बीला था मगर
बुज़-दिली ने उसे इक वार भी सहने न दिया
ग़ज़ल
मैं समुंदर था मुझे चैन से रहने न दिया
अज़हर इनायती